अस्मिता के नए सवाल और कबीर के आलोचक – राजीव कुमार कुंवर
जनवरी 31, 2010 rajeevkunwar द्वारा
बीसवीं सदी के आखिरी दौर में हिन्दी आलोचना अस्मिता के नए सवालों से टकराकर साहित्यिक विमर्श के स्थान पर सामाजिक विमर्श की भूमिका में सामने आयी। डाॅ॰ धर्मवीर की किताब कबीर के आलोचक में अस्मिता के नए सवालों के माध्यम से हिन्दी आलोचना को नए सिरे से पढ़ने और जाँचने-परखने की महत्त्वपूर्ण कोशिश हुई है। इस कोशिश की पूर्वधारणा और निष्कर्ष दोनों ही हिन्दी आलोचना के ब्राह्मणवादी चरित्रा को दिखाना है। इस किताब में पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी के कबीर संबंधी विश्लेषण को ब्राह्मणवादी आलोचक की राजनीति के तौर पर पढ़ा गया है। डाॅ॰ धर्मवीर से पहले इस तरह की कोशिश डाॅ॰ नामवर सिंह ने दूसरी परम्परा की खोज में की थी। पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी को दूसरी परम्परा का आलोचक सिð करने के लिए उन्होंने आचार्य रामचन्द्र शुक्ल को ब्राह्मणवादी सिð किया था। डाॅ॰ धर्मवीर ने डाॅ॰ नामवर सिंह के निष्कर्षों को उलटते हुए दोनों ही आलोचकों को एक ही परम्परा ( ब्राह्मणवादी ) का आलोचक सिð किया है। दो-तीन दशक के बाद वही नामवर सिंह दिल्ली विश्वविद्यालय में कबीर पर बोलते हुए धर्मवीर से अपनी सहमति जता रहे थे। नामवर सिंह के विचार में इस बदलाव को कैसे समझा जाय ? (लिखा नहीं गया, इसलिए कैसे पढ़ा जाय कहना गलत होगा।) क्या इस परिवर्तन में समय का दबाव है ? क्या यह दबाव अस्मिता के प्रश्नों के कारण पैदा हुआ है ? अस्मिता के प्रश्न को ध्यान में रखते हुए इस लेख में डाॅ॰ धर्मवीर की समीक्षा-दृष्टि पर एक नजर डालना इस लेखक का उद्देश्य है। डाॅ॰ धर्मवीर ने अपनी किताब कबीर के आलोचक की भूमिका में लिखा है – “ इसमें मैंने कबीर के ब्राह्मणवादी समीक्षकों को समझना चाहा है।……..मूल कबीर से ये सभी बचते हैं। इनकी यह भी कोशिश रही है कि कहीं यह सिð न हो जाए कि कबीर दलितों के किसी पुराने धर्म के प्रवर्तक थे। इन सबका उद्देश्य इस सम्भावना पर रोक लगाना है कि हिन्दू धर्म को छोड़कर भारत के दलितों का कोई नया या अलग धर्म भी हो सकता है। ”(कबीर के आलोचक- डाॅ॰ धर्मवीर-भूमिका ) इस भूमिका से लेखक की पूर्वधारणा- ब्राह्मणवादी समीक्षकों को समझना- घोषित और साफ है। इसके साथ ही लेखक दलितों की एक कोटि बनाता है। दलित की इस कोटि को वह हिन्दू धर्म की कोटि से अलग करता है। कुल मिलाकर दलित का ’अन्य‘ हिन्दू है। इसके बाद वह कबीर की पहचान दलित कोटि के प्रवर्तक के तौर पर करता है। हिन्दी आलोचना में जिस आलोचक ने भी कबीर की पहचान हिन्दू धर्म के अन्तर्गत करने की कोशिश की है वह डाॅ॰ धर्मवीर का निशाना बना। उस आलोचक पर ब्राह्मणवादी आलोचक होने का आरोप उन्होंने लगाया। डाॅ॰ धर्मवीर की समस्या अस्मिता की समस्या है। कबीर की भी समस्या बहुत दूर तक अस्मिता की समस्या है। इसके बावजूद डाॅ॰ धर्मवीर और कबीर की अस्मिता की समस्या का स्वरूप एक नहीं है। डाॅ॰ धर्मवीर आधुनिकता के आलोक में दलित अस्मिता की पहचान करते हैं। यही स्थिति पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी के साथ भी है। पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी कबीर की पहचान आधुनिकता के आलोक में हिन्दू अस्मिता के रूप में करते हैं। पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी के हिन्दू अस्मिता के वृत्त में दलित समाज भी आ जाता है। इस अस्मिता का अन्य अभारतीय अर्थात इस्लाम और इसाई हैं। आधुनिक युग से पूर्व व्यक्ति की सामुदायिक पहचान कई स्तरों पर हो सकती थी। व्यक्ति एक साथ जाति, उपजाति, उपासना सम्प्रदाय, स्थानीय ग्रामीण समुदाय आदि कई रूपों में पहचाना जा सकता था। इन विभिन्न पहचानों के बीच प्राथमिकता तय करना जरूरी नहीं था। इसके साथ ही ये समुदाय व्यक्तित्व के सभी पहलुओं एवं सभी स्तरों के प्रतिनिधित्व का भी दावा नहीं करते थे। आधुनिकता से प्रेरित होकर इतिहास लेखकों एवं आलोचकों ने मध्यकालीन साहित्य को अस्मिता के किसी एक आयामी वृहद् आख्यान में गढ़ने की कोशिश की। यही कोशिश पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी में हिन्दू अस्मिता के रूप में सामने आयी और डाॅ॰ धर्मवीर में दलित अस्मिता के रूप में। कबीर की अस्मिता इन दोनों से अलग और बहुस्तरीय है। यही कारण है कि पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी कबीर को भारतीय और हिन्दू परम्परा में और डाॅ॰ धर्मवीर कबीर को दलित कोटि में बार-बार फिट करने की कोशिश करते हैं और कबीर इन दोनों की पकड़ से बार-बार फिसल जाते हैं। डाॅ धर्मवीर ने पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी के फिसलन को अपनी इस किताब में बहुत ही सही ढंग से पकड़ने की कोशिश की है। लेकिन खुद अंतत¢ डाॅ॰ धर्मवीर को कबीर के लिए एक और कोटि बनाने की जरूरत पड़ती है। इस लेख में हम डाॅ॰ धर्मवीर की इस कोटि को और उसकी राजनीति को समझने की कोशिश करेंगे। आखिर कबीर का ’लक्ष्य समाज‘ कौन है? इस प्रश्न का उत्तर डाॅ॰ धर्मवीर ने इन शब्दों में दिया है – “………कबीर न मुल्ला को कुछ समझाते हैं और न ब्राह्मण से कोई आशा लगाए बैठे हैं। कबीर का अपना समाज है- इसे कबीर का ’लक्ष्य समाज‘ कहा जा सकता है। इस लक्ष्य समाज में इस देश के शूद्र और अन्त्यज शुमार होते हैं। ये लोग यहाँ के अर्थशास्त्रा में मजदूर और छोटे किसान बने हुए हैं। कबीर को केवल इनके भले की सोचनी है। ”(कबीर के आलोचक- डाॅ॰ धर्मवीर-पृ॰सं॰-40) यही वह बिन्दु है जहाँ डाॅ॰ धर्मवीर ने दलित पहचान को श्रमिक पहचान में घुलाने की कोशिश की है। डाॅ॰ धर्मवीर जिस दलित अस्मिता की लड़ाई लड़ रहे हैं वह वर्ग आधारित नहीं है, बल्कि उसका संबंध रक्त आधारित है अर्थात उसका संबंध जन्म से है कर्म से नहीं। श्रमिक पहचान का संबंध कर्म आधारित है। फिर डाॅ॰ धर्मवीर को कर्म आधारित श्रमिक पहचान की जरूरत क्यों हुई ? इसका कारण है कबीर की अस्मिता की बहुस्तरीयता। कबीर डाॅ॰ धर्मवीर की दलित अस्मिता के छोटे दायरे में पूरी तरह नहीं समा पाते हैं। अपने विश्लेषण में डाॅ॰ धर्मवीर ने अनेकों बार इस ’श्रमिक समाज‘ का प्रयोग किया है। यहीं से डाॅ॰ धर्मवीर के दलित विमर्श में फाँक दिखायी देने लगता है। ऋवास्तव में यह अस्मिता के आधुनिक विमर्श का परिणाम है। डाॅ॰ धर्मवीर जब दलित की कोटि बनाते हैं तब उसके प्रवर्तक कबीर होते हैं। वे कबीर, डाॅ॰ अम्बेडकर, डाॅ॰ धर्मवीर और ब्राह्मणवादी गुलामी की मानसिकता वाले दलित में कोई फर्क नहीं करते हैं। इसके साथ ही वे पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी और बनारस के पंडे में भी कोई फर्क नहीं करते हैं। उन्हें वृð पंडित और पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी में भी कोई अंतर दिखाई नहीं देता है। इसका कारण है डाॅ॰ धर्मवीर का अस्मिता-विमर्श। उनके दलित की कोटि में वही आ सकता है जिसका जन्म दलित परिवार में हुआ है। वैदिक धर्म के विरोध से अगर दलित धर्म का प्रवर्तन माना जाय तो डाॅ॰ धर्मवीर बुð को इसका प्रवर्तक मानते। लेकिन ऐसा नहीं है, क्योंकि बुð का जन्म ’द्विज कुल‘ में हुआ था। इसी तरह ब्राह्मण परिवार में पैदा लेने वाला ब्राह्मण ही होगा। एक ओर दलित और हिन्दू की कोटि को डाॅ॰ धर्मवीर ने जन्म आधारित माना है (जिसका चुनाव व्यक्ति के द्वारा संभव नहीं है, जिसमें मृत्युपर्यन्त परिवर्तन संभव नहीं है, जिसका संबंध सामाजिक-सांस्कृतिक विषमता से है, जिसका संबंध परम्परागत सामुदायिक विमर्श से है) तो दूसरी ओर कबीर के अलग धर्म को श्रमिक समाज से जोड़ते हुए उसे वर्गीय (जिसका संबंध कर्म से है, जिसमें परिवर्तन संभव है, जिसका संबंध आर्थिक विषमता से है, जिसका संबंध आधुनिक बुðिवादी विमर्श से है) रूप में पहचाना है। क्या डाॅ॰ धर्मवीर इस सामाजिक-सांस्कृतिक विषमता का कारण आर्थिक विषमता को मानते हैं ? अगर ऐसा है तब फिर वे माक्र्सवादी आलोचना से कहाँ अलग हैं ? आधुनिक ज्ञान से मानसिकता में कोई बदलाव भी होता है, इसपर डाॅ॰ धर्मवीर कोई ध्यान नहीं देते हैं। ’ज्ञान‘ के भिन्न-भिन्न वृत्त को अगर डाॅ॰ धर्मवीर पहचानते तब वे कबीर, डाॅ॰ अम्बेडकर, डाॅ॰ धर्मवीर और ब्राह्मणवादी गुलामी की मानसिकता वाले दलित में कोई फर्क कर पाते, इसके साथ ही वे पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी और बनारस के पंडे में भी फर्क कर पाते और तब उन्हें वृð पंडित और पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी में भी साफ-साफ अंतर दिखाई देता। आधुनिक ज्ञान पर ध्यान न देने का ही परिणाम है कि डाॅ॰ धर्मवीर कबीर और डाॅ॰ अम्बेडकर की शक्ति को इस्लाम और ईसाइयत की देन मानते हैं। यहाँ उन्हीं का उðरण रखना चाहूँगा – ’’ कबीर की पुनरावृत्ति हर समय हुई है। इस युग में ईसाइयत के प्रभाव के कारण डाॅ॰ अम्बेडकर की कहानी ने जन्म लिया है। यदि कबीर भारत में मुसलमानी आगमन की देन थे तो डाॅ॰ अम्बेडकर ईसाइयत के प्रभाव का परिणाम हैं। ‘‘(कबीर के आलोचक- डाॅ॰ धर्मवीर-पृ॰सं॰-41) डाॅ॰ अम्बेडकर का अंग्रेजों से प्रभावित होना तो माना जा सकता है, लेकिन ईसाइयत का प्रभाव समझ से परे है। अंग्रेज अपने साथ आधुनिक शिक्षा और इसाई धर्म दोनों लाए। डाॅ॰ अम्बेडकर की कहानी का जन्म आधुनिक शिक्षा का परिणाम है न कि ईसाइयत का। इसी तरह कबीर को मुसलमानी आगमन की देन मानना तो ठीक है, लेकिन उन्हें इस्लाम की देन नहीं कहा जा सकता है। एक तरफ डाॅ॰ धर्मवीर श्रमिक समाज की कोटि को स्वीकार करते हैं, लेकिन दूसरी तरफ व्यापारिक पूँजीवाद जो मुसलमानी आगमन की देन है, जिसकी देन कबीर हैं उन्हें याद नहीं रहता। असल में कबीर को मुसलमानी आगमन की देन और डाॅ॰ अम्बेडकर को ईसाइयत का परिणाम मानने की अलग राजनीति है। पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी आदि आलोचक भारतीय परम्परा का हिन्दू धर्म में एक आयामी वृहद् आख्यान बनाते हैं, तो डाॅ॰ धर्मवीर दलित अस्मिता का ’अभारतीय‘ वृहद् आख्यान। डाॅ॰ धर्मवीर को दलित अस्मिता को हिन्दू धर्म से अलग भारतीय परम्परा में पहचान दिलाने में परेशानी होती है, क्योंकि जो भी लिखित है वह या तो हिन्दू धर्म का है या फिर बौð और जैन धर्म का। डाॅ॰ धर्मवीर जिस श्रमिक समाज से दलित अस्मिता को जोड़ते हैं वह समाज अशिक्षित है। डाॅ॰ धर्मवीर ने लिखा भी है – ’’ भारत के श्रमिक समाज की अपनी परेशानी शिक्षा के अभाव की है। इस देश के लिखित धर्मशास्त्रों द्वारा श्रमिक समाज के लोगों को जबरन शिक्षा से वंचित रखा गया है। ये अपनी पैदायश में वेद विरोधी हैं पर अपने अलिखित धर्म को संगठित रूप में सुरक्षित नहीं रख पाते। यदि इनमें शिक्षा का व्यापक प्रसार होता तो ये भी अपने अलिखित धर्म को लिखित रूप दे सकते थे।………..कबीर अपने युग के सबसे अधिक शिक्षित व्यक्ति थे। उस युग में उनके बराबर पढ़ा-लिखा और समझदार व्यक्ति मिलना कठिन था। उनका यह पढ़ना-लिखना और ज्ञान-ध्यान इस देश में मुसलमानी प्रभाव के कारण सम्भव हो सका था। ‘‘(कबीर के आलोचक- डाॅ॰ धर्मवीर-पृ॰सं॰-41) डाॅ॰ धर्मवीर के अनुसार इस अशिक्षित श्रमिक समाज का, हिन्दू धर्म से पैदायशी तौर पर, अलग धर्म, असंगठित रूप में रहा है, जिसे संगठित करने का आरम्भिक कार्य कबीर ने किया। इसका कारण कबीर का पढ़ा-लिखा होना है तथा इस पढ़ने-लिखने का कारण मुसलमानों का आगमन है। यहाँ डाॅ॰ धर्मवीर से पूछा जा सकता है कि ’पढ़ा-लिखा होना‘ से किस ’ज्ञान‘ का बोध होता है। ’ज्ञान‘ के ही कारण श्रमिक समाज वेदविरोधी भी है। क्या डाॅ॰ धर्मवीर का आशय अक्षर ज्ञान से है ? क्या अक्षर ज्ञान के अभाव के कारण ही श्रमिक समाज संगठन नहीं बना सका ? डाॅ॰ धर्मवीर का यह निष्कर्ष मानना इस लेखक के लिए संभव नहीं है। वास्तव में डाॅ॰ धर्मवीर की समस्या का कारण है भारतीय परम्परा को हिन्दू परम्परा के रूप में समझना। डाॅ॰ धर्मवीर की इस समझ का कारण है नवजागरण के प्रभाव से लिखा इतिहास-लेखन और आलोचना, जिसमें औपनिवेशिक सत्ता के इसाई पहचान के विरुð हिन्दू अस्मिता का वृहद् आख्यान गढ़ा गया। डाॅ॰ धर्मवीर इसे बिना पहचाने ‘दुश्मन का दुश्मन दोस्त’ के तर्ज पर ईसाइयत में डाॅ॰ अम्बेडकर की शक्ति की खोज करते हैं। वे आधुनिक शिक्षा में उनकी शक्ति को नहीं रेखांकित करते। यह डाॅ॰ धर्मवीर का राजनीतिक छल है, क्योंकि ऐसा नहीं है कि डाॅ॰ धर्मवीर आधुनिक शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझते हैं। ऐसा उनके निम्नलिखित उðरण के आधार पर कहा जा रहा है – ’’ पर खुशी की बात यह है कि इस बार आधुनिक सरकारों के विकास कार्यक्रमों की वजह से श्रमिक समाज में अनिवार्य शिक्षा का प्रसार होता जा रहा है। शिक्षित होकर अगला श्रमिक समाज अस्पृश्यता आदि सामाजिक समस्याओं का समाधान खुद खोज लेगा। तब जाति प्रथा मिटवाने के लिए उसे किसी अन्य धर्म की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। वह खुद वेद विरोधी धर्म का पालन करके वर्ण-व्यवस्था को जड़मूल से खत्म कर देगा। ‘‘(कबीर के आलोचक- डाॅ॰ धर्मवीर-पृ॰सं॰-41) क्या डाॅ॰ धर्मवीर आधुनिक सरकार की अनिवार्य शिक्षा के स्वरूप को नहीं पहचानते हैं ? यह शिक्षा आधुनिकता की देन है न कि ईसाइयत की। डाॅ॰ धर्मवीर ने हिन्दू अस्मिता के ’अन्य‘ दलित अस्मिता की भूमि से उन सभी विद्वानों पर ब्राह्मणवादी आलोचक होने का आरोप लगाया है जिन्होंने कबीर की पहचान हिन्दू अस्मिता के अंतर्गत करने की कोशिश की है। क्योंकि डाॅ॰ धर्मवीर के चिन्तन में हिन्दू धर्म और ब्राह्मणवादी धर्म में कोई अंतर नहीं है। पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी जिन्होंने ’कबीर‘ नामक किताब में कबीर का एक आयामी हिन्दू और भारतीय आख्यान गढ़ा है, के जबाव में डाॅ॰धर्मवीर ने दलित अस्मिता का अभारतीय और एक आयामी आख्यान गढ़ा। कबीर भक्त हैं या समाज सुधारक – इस मुद्दे पर दोनों आलोचकों में भेद है। पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कबीर को मूल रूप में भक्त माना है, समाज सुधारक वाला रूप उनका बाॅय प्रोडक्ट है, क्यों ? इसका कारण है पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी की ’भारतीय परम्परा‘। उनकी भारतीय परम्परा में इस्लाम ’अन्य‘ की भूमिका में है। ’भक्ति‘ इस अन्य के खिलाफ भारतीय समाज को संगठित करने की भूमिका निभाता है, इसलिए कबीर पं॰ हजारीप्रसाद द्विवेदी के विश्लेषण में मूलतः भक्त हैं। जबकि समाज सुधार के मूल में हिन्दू समाज के अंदर की विषमता है। डाॅ॰ धर्मवीर ने दलित धर्म को हिन्दू धर्म से अलग करने के लिए कबीर के समाज सुधारक वाले रूप को प्रमुख माना है, क्योंकि कबीर का समाज सुधारक वाला रूप ब्राह्मणवाद के खिलाफ है। भक्ति में सामाजिक विषमताओं से नजर चुराया जा सकता है, लेकिन समाज सुधार का लक्ष्य सामाजिक विषमता ही होगा। डाॅ॰ धर्मवीर ने इस राजनीति को बहुत ही सूक्ष्म रूप में पकड़ने की कोशिश की है। इसके बावजूद उन्होंने कबीर को उसकी समग्रता में नहीं पहचाना है, तो इसका एक मात्रा कारण है उनकी एक आयामी पाठात्मक राजनीति।
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Uncategorized में प्रकाशित किया गया | 7 टिप्पणियां
धन्य हो. एक सीध में सीधे जा रहे हो और निशाना भी ठीक जगह पर लगाया है. जेते पाँव पसारियो तेती लामी सौर. इस लेख से यह तो साफ है कि ऐसी कृपा श्री श्री नामवर सिंह जी के ऊपर करने का साहस आप में नहीं है. पर सोचने की बात यह है कि धन्नो को घास मिली कहाँ से.
Sahas ke liya kya kahun! dhanno ko ghash bahut pahle mil gye hai, Pardhte sochte.
Swagat hai…font bada karen to padhne me adhik suvidha hogi!
Abhe Sekhne ke Process main hun. Jald he kosis karunga.
dear sir
namskar
font ghanehone se samajh nahi aaya .
but kabir is not only poit .i dont know .ke
sahitykaron ne unhein kitna samjha .but i
definite prove it .maximum writer unhen ya unki vani ko samajh nahi sake.if you know
real meanns of kabir and his litreture pl.
contect my cell..9837364129
thank you .
अच्छा विश्लेषण है
थैंक्स